शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

दादाजी की कहानी

परम पूज्य दादाजी’’ ने दादा परिवार’’ की स्थापना अपने गुरुदेवदादा किनाराम’’ के नाम और शिक्षाओं के प्रसार के लिए की थी।यहाँ दादा एक आदर सूचक सम्बोधन है। जैसे श्री दादाजी(श्री हीरामन तिवारी) अपने गुरु कोदादा’’ किनाराम कहते थे और श्री दादाजी के शिष्य उन्हे दादाजी कहते थे। श्री दादाजी के अनुयाई हर संप्रदाय, हर धर्म मे मिलेंगे। उनके चमत्कारिक किस्से आज भी सुनाए जाते है।
कुल एवं वंश परंपरा :- श्री दादाजी’’ का जन्म सरयुपारीय, शंडिल्य गौत्र, धतुरा तिवारी,खेड़ा-चन्नार कुल मे 27 जनवरी 1943 को चांदामेटा जिला छिंदवाड़ा मे हुआ था। श्रीदादाजी’’ के पूर्वज मूलतः रीवा राज्य से संबन्धित थे। आपका पूरा नाम श्री हीरामन तिवारी दादाजीथा। पिता श्री लालमान तिवारी एवं माता श्रीमति रानी बाई थीं। आपके दादा श्री दुर्गादात्त तिवारी को क्षेत्र के प्रसिद्ध माँ हिंगलाज मंदिर (अंबाड़ा) के प्रथम पुजारी होने का गौरव प्राप्त था। उसके बाद उनके दामाद श्री रोहिणी प्रसाद गौतम ने मंदिर का कार्यभार संभाला। ये लोग अपने समय के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य माने जाते थे। श्री पं. दुर्गादत्त तिवारी का रीवा नरेश राजा गुलाब सिंह बहुत सम्मान किया करते थे। अपनी अनेकों समस्याओं में इनका परामर्श लिया करते थे। उन्हे दूरदृष्टि की सिद्धि प्राप्त थी, भविष्य दर्शन उनके लिए चलचित्र देखने जैसे ही था। राजा गुलाब सिंह को जब भी अपने पुत्र श्री मार्तंड प्रताप सिंह (जो उस समय इंग्लैंड मे शिक्षा प्राप्त कर रहे थे ) का हालचाल जानना होता तो पं दुर्गादात्त तिवारीजी के पास आते और पंडितजी आँखें बंद कर देखकर सारा हाल बता देते। उनके अंतिम समय की उस अदभुत घटना का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है। जब उनकी धर्मपत्नी की अंतिम साँसे चल रहीं थी तो उन्होने पत्नी से कहा तुम चलो शाम तक हम भी आते हैं। इस तरह दोनों का एक ही चिता मे अंतिम संस्कार किया गया। इस वंश ने कई पीढीयों तक रीवा राज्य के राजगुरु पद को सुशोभित  किया।
माँ बूटूँ अवधूतिन :- पूज्य दादाजीने जो भी चमत्कार किए उसका श्रेय अपने गुरुओं को ही देते थे। उनके स्कूल से लेकर अध्यात्म के चरमोत्कर्ष तक पहुँचने के मार्ग में अनेकों गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। जैसे मंत्र दीक्षा (कान फूंकने वाले गुरु )श्री श्री  १०८ भगवती प्रसाद शुक्ल, अयोध्या निवासी, रामभक्त थे। सूफी मत मे सिकंदरशाह बाबा ,तनसरा वाले बाबा, ताज़बाग के शफी बाबा, बाबा सैलानी का आशीर्वाद प्राप्त था। छिंदवाड़ा के प्रसिद्ध संत श्री हानिफ बाबा से गहरी मित्रता थी। उन्होने तामिया, पातालकोट,पंचमढ़ी, के जंगलों मे जाकर आदिवासी विद्याओं मे सिद्धता हासिल की बाद मे वहाँ के ओझाओं ने श्री दादाजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। परंतु सदगुरु दादा किनाराम की प्राप्ति की बड़ी रोचक कथा है। यह कथा उनके जन्म से बहुत पहले ही प्रारम्भ हो जाती है। पूज्य श्री दादाजी की नानी पूज्य माँ बूंटूंबाई (माँ बूटूँ अवधूतिन ) क्षेत्र की सिद्ध संत थीं। उनके पति का प्लेग की महामारी मे कम उम्र मे ही देहावसान हो गया था। पति के देवलोक गमन के पश्चात माँ बूटूँ ने अपनी नश्वर देह को समाप्त करने के विचार से फूल (अस्थि) विसर्जन के लिए प्रयाग पहुँचीं। वहाँ जाकर जब वे गंगाजी मे छ्लांग लगा दी। जब वे नीचे पहुंचतीं हैं तो देखतीं हैं की एक बड़े ही तेजस्वी साधू वहाँ पर विराजमान हैं। वे माँ बूटूँ को समझते हैं की अभी आपके जाने का समय नहीं आया है। आपको अभी आध्यात्मिक और सामाजिक क्षेत्र मे बहुत काम करना है और अवधूत पंथ को आगे बढ़ाना है। परंतु माँ बूटूँ कहती हैं कि आप जो सामर्थ्य मुझे दे रहे हैं, उसका क्या फायदा, क्योंकि मेरी तो पुत्री संतान है वह ब्याह कर दूसरे के घर मे चली जायगी फिर आपकी इस धरोहर को कौन संभालेगा ? तब पूज्य बाबा कहते हैं कि तेरी पुत्री का तो पुत्र होगा (अर्थात पूज्य दादाजी) वही इस मार्ग को आगे बढायगा। उसके बाद उन्होने माँ बूटूँ को सन्यास ग्रहण करने का आदेश दिया और अपनी शिष्य परंपरा के प्रसिद्ध संत श्री दादा धुनिवाले के पास भेजा। संत दादा धुनिवाले जब भी भ्रमण को निकलते तो माँ बूटूँ के पास अवश्य पधारते। आज भी गाँव के बड़े बुजुर्ग इस बात के गवाह हैं। माँ बूटूँ के हाथ से बनी चमत्कारिक शारदा माई कि मढ़ैया’’, कुआं, नीम और पीपल का वृक्ष आज भी मौज़ूद हैं। कैसे उन्होने चलती ट्रेन को रोक दिया था। कैसे हजारों साधुओं को भोजन कराया इत्यादि। यह भी एक चमत्कारिक सच्ची घटना है। एक बार कि बात है ,उस समय हजारों साधु नर्मदा कि परिक्रमा को निकलते थे। एक बार रात्री के समय करीब हज़ार साधुओं का समूह माँ बूटूँ के द्वार आ पहुंचा। साधुगण माताजी से भोजन कि प्रार्थना करने लगे। उस समय चांदामेटा एक छोटा सा गाँव था। इतने लोगों के लिए भोजन सामाग्री उपलब्ध नहीं थी। परंतु माताजी कि हर इच्छा तो माँ नर्मदा पूरी किया करती थी। उनके साथ गाँव के छोटे छोटे बच्चे खेला करते थे। माँ बूटूँ ने बच्चों से कहा जाओ रे जाकर नर्मदा मैया से तेल उधार मांग लाओ ,कहना कल वापस कर देंगे। बच्चों ने गाँव कि नदी (माँ बूटूँ के लिए हर नदी गंगा,नर्मदा कि तरह पवित्र थी) से पात्र मे पानी भरकर ले आए और जब उस पानी को कढ़ाई मे डाला गया तो उस मे तेल कि भांति पुड़ियाँ टालने लगी। साधुओं ने भोजन के पश्चात पान खाने कि इच्छा जाहिर कि तो माँ बूटूँ ने बच्चों को फिर कहा जाओ रे बरम बाबा (पीपल का वृक्ष) से पान और नर्मदा मैया से सुपारी उधार मांग लाओ, कल वापस कर देंगे। साथ ही बच्चों को हिदायत दी कि नदी से पत्थर, सुपारी के आकार के ही उठाना। परंतु बच्चे तो बच्चे ही ठहरे ना उनने कुछ पत्थर बड़े भी उठा लिए। जब थैली से पत्थर निकाले गए तो वह सुपारी बन चुके थे। 20-25 वर्ष पूर्व तक एक 90-95 वर्षीय बुजुर्ग थे श्री महावीर प्रसाद तिवारी (जो उन बच्चों मे से एक थे )जिनके पास टेनिस बॉल के आकार कि सुपारी थी जो उस चमत्कार के प्रतीक के तौर पर अपने पास रखे हुए थे। ऐसे सिद्ध विभूतियों के वंशज थे पूज्य दादाजी।
गुरु से साक्षात्कार :-  आइये अब जानते कैसे मिले दादाजी को उनके सदगुरु बाबा किनाराम (यहाँ उन्हे दादा किनाराम कहा जाता है)। दादाजी के पड़ोस मे एक बार ओझा,बाबानुमा व्यक्ति आए और वे कुछ किस्से सुनाने लगे ,उन कहानियों मे बाबा किनाराम का ज़िक्र आया। बाबा किनाराम का नाम सुनने के बाद ये नाम उनके मस्तिष्क मे गूंजने लगा ,उन्हे लगा इस नाम से उनका कोई रिश्ता तो ज़रूर है। बस उस नाम से लगन लग गई,उन्हे परंपरागत पूजापाठ मे थोड़ा कम लगाव था इसलिए उन्होने एक आले मे बाबा किनाराम का नाम लिख कर उसका ध्यान करने लगे। यह आला उसी स्थान पर था जहां कभी माँ बूटूँ की धूनी हुआ करती थी। एक बार दादाजी उसी कमरे मे सो रहे अचानक किसी ने उनकी छाती मे पैर मारा तो वे जाग गए और उन्होने देखा की एक स्थूलकाय साधू उनकी छाती पर पैर रख कर खड़ा है और कुछ बुदबुदा रहा है। वह साधू कोई और नहीं बल्कि बाबा किनाराम ही थे। जो उन्हे दीक्षा देने ही आए थे। उसके बाद दादा किनारम ने उनका हाथ पकड़कर गंगा किनारे ले गए जहां दीक्षा के पश्चात एक चिमटा दिया और कहा अपनी मुट्ठी मे गंगाजी की बालू रख लो। दादाजी की जब आँख खुली तो उनके हाथ मे बालू और चिमटा था। और वह आज भी रखा हुआ है। उस दिन के बाद दादाजी एक चमत्कारिक व्यक्तित्व बन गए। दादा किनाराम के नाम का पूजन करने के काफी समय पश्चात दादाजी ने अपने गुरुदेव को याद कर कहा-मैं कब से सिर्फ नाम का पूजन कर रहा हूँ ,अब तो अपना कोई चित्र दे दो। कुछ दिनों के बाद उन्हे अपने किसी मित्र के साथ जबलपुर जाना पड़ा। जब वे लौट रहे थे तो बस स्टैंड पर बुकस्टाल पर खड़े थे, तार पर कुछ किताबें लटक रहीं थीं। दादाजी को उपन्यास पढ़ने का शौक था सो वह किताबें टटोलने लगे। चूंकि ठंड के दिन थे तो दादाजी ने जैकेट पहन रखा था और उसकी आधी चैन खुली हुई थी। तेज़ी से हवा चली एक किताब जैकेट मे आकर फंस गई। दादाजी ने देखा वह कोई स्पोर्टस मैगज़ीन है तो दादाजी ने वापस उसे टांग दिया। फिर हवा चली वो वापस उसी जगह आकर अटक गई। दुकानदार बोला साब ये किताब बार बार आपके पास आ रही आप इसे ले क्यूँ नही लेते। दादाजी ने जवाब दिया अरे भाई मेरा इन किताबों मे लगाव नहीं है और उन्होने उसे वापस रख दिया। इस बार फिर हवा चली परंतु किताब नीचे गिरी ,उसके कुछ पन्ने खुले हुए थे। दादाजी जब उसे उठाने लगे तो उन्होने देखा वहाँ कोई चित्र बना हुआ है जब ध्यान से देखा तो वह बाबा किनाराम की फोटो थी। इस तरह उन्हे अपने गुरुदेव का चित्र मिला। परंतु आश्चर्य की बात यह है की दादाजी कभी भी अपने गुरु के मूलस्थान अर्थात बनारस नहीं गए जब वहाँ की बात करते तो लगता वे स्थान के चप्पे चप्पे से वाकिफ हों। वहाँ के प्रसिद्ध संत अघोरेश्वर बाबा अवधूत भगवान राम को अपने गुरु का अवतार मानते थे। पूज्यदादाजी’’ ने हमेशा व्यावहारिक और सामाजिक उन्नति के लिए अध्यात्म कि उपयोगिता के लिए प्रेरित किया। वैज्ञानिक और प्रगतिशील सोच को बढ़ावा दिया है। वे स्वयं कभी भी चमत्कार को बढ़ावा नहीं देते थे। ये बात अलग है कि वे जहां होते चमत्कार अपने आप घटित हो जाते। साधारण जीवन और ऊंची सोच कैसी हो ये तो पूज्य दादाजी से सीखना चाहिए। कभी आडंबर का सहारा नहीं लिया। 30 वर्षों तक साधारण नौकरी करते हुए लोगों के कैसे असाधारण कार्य करते रहे। अपनी वेषभूषा सदैव साधारण रखी कभी भी दिखावा नहीं किया। उनकी शख्शियत की सबसे खास बात यह थी की जो व्यक्ति उनसे मिलने आता और अगर उसके मन मे किसी प्रकार की शंका, अहम, या दुर्भावना होती परंतु जब वो मिलकर वापस जाता तो नतमस्तक और उनका होकर ही जाता। एक साथ कई लोगों से कई विषयों पर बात कर सकते थे। जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से बड़ा पाठ पढ़ा दिया करते थे। हमेशा गृहस्थ जीवन को ही सबसे बड़ा तप कहते थे। वे कहते की संसार से विरक्त होकर ईश्वर का नाम लेना तो बड़ा आसान है परंतु जीवन की समस्याओं से जूझते हुए ईश्वर मे मन लगाना सबसे ही बड़ी भक्ति,तप है। कहते हैं औघड़ों,अवधूतों मे मृत को भी जीवित करने की क्षमता होती है, ऐसे तो अनेकों उदाहरण मिल जायगें जिनमे लोगों ने उनकी कृपा से मृत घोषित होने के पश्चात भी जीवन पाया है। परंतु सबसे चमत्कारिक तो उनकी वाणी थी जिसे सुन कर हजारों लोगों ने अपने मृत जीवन मे दिशा पाई। ना जाने क्या जादू था उनकी वाणी मे जो भी सुनता सम्मोहित हो जाता, जीवन मे दिशा पाता, अपनी हर समस्या का हल पाता, जीवन से निराश, हारा हुआ व्यक्ति भी पूर्ण ओज, चेतना भर जाता। ख़ैर, ऐसे चमत्कारिक महान विभूति के गुणो या क्षमताओं को खोजना ईश्वर को खोज लेने के बराबर है। इसलिए इस दृष्ठता को ना करते हुए परम पूज्य दादाजी को प्रणाम कर, लोगों के जीवन मे घटी सच्ची प्रेरक घटनाओं को जानने का प्रयास करें।
मज़ाक मे चमत्कार :- श्री देवी सिंह ने जो घटना बताई वो आपको बताते हैं। पूज्य दादाजी WCL मे नौकरी किया करते थे । अपने कार्यालय साइकल से जाया करते थे। जिस रास्ते से ऑफिस जाते थे। उसमे कुछ मांस विक्रेताओं की दुकान पड़ती थी। वे पूज्य दादाजी के बचपन के मित्र थे। जब पूज्य दादाजी ऑफिस आते तो अक्सर उनके मित्र मज़ाक़ किया करते थे, कहते पंडितजी लेजा लो 1-2 किलो मांस, आपके लिए फ्री है। उन्हे मालूम था दादाजी ब्राह्मण हैं वे इन चीजों का स्पर्श भी नहीं करेंगे। एक दिन दादाजी कोई अलग मनःस्थिति मे थे,जैसे ही उनके मित्रों ने उनसे मज़ाक किया, दादाजी ने तपाक से कह दिया हाँ दे दो। पहले उनके मित्रों को लगा पंडितजी भी मज़ाक कर रहें हैं। उन्होने कहा- आप क्यों कष्ट करते हैं हम आपके घर ही पहुंचा देंगे। दादाजी ने कहा नही भाई जब हम जा ही रहें हैं तो कष्ट कैसा। मित्रों को भी आश्चर्य हुआ उन लोगों ने एकदूसरे की शक्ल देखते हुए, एक पैकेट में मांस दे दिया। दादाजी का निवास स्थान पास ही था वे लोग इकट्ठा होकर देखने लगे। उनको लगा शायद दादाजी पैकेट फेंक देंगे, परंतु दादाजी जैसे ही शारदा माई की मढ़ैया’’ के पास पहुँचते हैं, वहाँ खेल रहे बच्चों को उस पैकेट से निकाल कर कुछ बांटने लगे। पीछे आ रहे लोगों ने जब ध्यान से देखा तो दंग रह गए। वे बच्चों को उस पैकेट से मिठाई निकाल कर बाँट रहे थे। उस घटना के पश्चात उन मांस विक्रेताओं ने दादाजी से मज़ाक करना छोड़ दिया वो समझ गए की अब दादाजी साधारण इंसान नहीं रह गए हैं वे तो संत बन चुके थे।
जब मृत्यु को पलटना पड़ा :- बालाघाट के प्रतिष्ठित व्यवसायी श्री सीताराम वैश्यजी, “दादाजी’’ के प्रिय शिष्य थे। उनके जीवन अनेकों घटनाएँ घटित हुईं थी। सबसे महत्वपूर्ण तो उनके पुत्र श्री दीपक वैश्य की सड़क दुर्घटना थी। एक वाहन श्री दीपक को टक्कर मारकर चला जाता है। वहाँ गुज़र रहे लोग उस दर्दनाक हादसे को देखते हैं। एक व्यक्ति उनके गले मे लॉकेट देखता है जिसमे परमपूज्य दादा किनाराम का चित्र था। वह व्यक्ति पहचान जाता है की यह व्यक्ति दादा परिवार से संबन्धित है। वे लोग दीपकजी को अस्पताल पहुंचाते हैं। श्री सीतारामजी, परमपूज्य दादाजी को फोन लगाते हैं और सारा वृतांत बताते हैं। श्री सीतारामजी जैसे ही हॉस्पिटल पहुंचते हैं। तो देखते हैं की दादाजी तो वहाँ पहले से ही मौजूद हैं जबकि वे 200 किलोमीटर दूर थे वे इतने जल्दी बालाघाट पहुँचना असंभव है। दादाजी जिला हॉस्पिटल के डॉ. से मिलने पहुँचते हैं और हालात पूछते हैं तो डॉ. मरीज़ को मृत घोषित कर देते हैं। दादाजी कहते हैं मैं इतनी दूर से बच्चे की मौत की खबर सुनने नहीं आया हूँ। वो जिंदा है, वो मर नहीं सकता। कुछ देर बाद आश्चर्यजनक रूप से मरीज़ मे जान आ जाती है।
नियमों का अपवाद ईश्वर के होने का प्रमाण है :- नागपुर के एक प्रतिष्ठित ट्रांसपोर्टर अवतार सिंहजी की पुत्रवधू को संतान प्राप्ति होने वाली थी। चूंकि उनकी पहले से ही एक पुत्री थी इसलिए वे चाह रहे थे की उनका एक पुत्र हो। जब उन्होने डॉक्टर से परीक्षण कराया तो उन्हे पता चला की पुत्री ही है। उसी समय पूज्य दादाजी का आगमन उनके निवासस्थान हुआ। दादाजी को परिवार के लोगों ने सारा वृतांत सुनाया। दादाजी ने बहू को कहा - बेटा एक गिलास पानी लाओ। जब बहू पानी लेकर आई तो दादाजी ने उसे ध्यान से देखा। फिर एक कागज़ लिखा १३ अप्रैल समय--। कहाइसी समय,इसी तारीख़ को तुम्हारे यहाँ पुत्र होगा। ऐसा ही घटित हुआ।कई बार कई जानेमाने डॉक्टर,वैज्ञानिकों,ज्योतिषियों को दादाजी के सामने नतमस्तक होना पड़ा। दादाजी उन्हे समझाते की अपने ज्ञान पर से विश्वास मत उठाइए। ईश्वर की सत्ता स्वीकार कीजिए। नियमों का अपवाद ईश्वर के होने का प्रमाण है।
तू लोगों के काम पर मैं तेरे काम पर :- वारासिवनी के डॉक्टर मेज़र पवन शर्मा, दादाजी के प्रिय शिष्यों मे से एक थे । प्रत्येक वर्ष गुरुपूर्णिमा और शिवरात्रि को दादाजी के धाम अवश्य आते थे । एक बार किसी वजह से उनका आना नहीं हुआ। उन्होने दादाजी से फोन पर अपनी व्यथा काही, उन्हे दुख था की वो अपने गुरु के दर्शन नहीं कर पाएंगे।  दादाजी ने कहा चिंता मत करो। तुम हमेशा की तरह गुरुमंत्र से हवन कर लेना। डॉक्टर साहब एक कमरे में हवन करने लगे। अचानक किसी ने कमरे के दरवाजे पर ज़ोर ज़ोर से आवाज़ देने लगा। जब डॉक्टर साहब ने दरवाजा खोला तो दंग रह गए, सामने दादाजी खड़े थे। दादाजी साझाने लगे अरे भाई जब किसी को बुलाते हो तो दरवाजा क्यों बंद रखते हो अर्थात जब गुरुमंत्र से मेरा आवाहन करने के बाद दरवाजा क्यों बंद कर रखा था। कुछ देर समय बिताने के बाद दादाजी अंतर्ध्यान हो गए। दादाजी को एक साथ कई जगह पर देखा जाता था। जब उनसे इस बारे मे बात की जाती तो वे बात टाल देते कहते ये तुम्हारा भ्रम है। वे कई बार १५ -२० दिनों तक लोककल्याण के लिए घर, ऑफिस से बाहर रहते परंतु ऑफिस मे उनकी उपस्थिती हमेशा पूरी होती। एक बार उनका कार्य जल्दी समाप्त हो गया सो वे एक दिन पहले ही ऑफिस पहुँच गए। जैसे ही वे अपने कैबिन के नजदीक पहुंचे। उन्होने देखा की एक व्यक्ति ठीक उनके ही जैसा सामने से आ रहा है। दोनों का सामना होते ही उनमे से एक तत्काल गायब हो गया। इस घटना के पश्चात दादाजी बड़े दुखी हो गए, उन्होने महसूस किया की उनकी वजह से उस महाशक्ति(गुरुदेव) को कितना कष्ट करना पड़ता है। फिर दादाजी ने नौकरी छोडने का मन बना लिया।
प्रकृति से लिया प्रकृति को वापस कर दिया :-  दादाजी के प्रिय और यशश्वि शिष्य श्री मुनीन्द्र त्रिवेदी, दादाजी के साथ भोपाल से परासिया आ रहे थे। रास्ते मे पेट्रोल खत्म हो गया। जंगल के बीचोंबीच सब परेशान होकर सोचने लगे अब क्या होगा। दादाजी ने श्री राजूजी से कहा जाओ राजू पास मे जो नदी बह रही है, उससे पेट्रोल मांग लाओ। कहना कल वापस कर देंगे। गाड़ी मे पानी डालकर ये लोग अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे। आखिर मे ठीक वैसा ही हुआ। दूसरे दिन उन्हे नदी मे पेट्रोल डालना पड़ा। किसी ने प्रश्न किया जब काम पूरा हो गया तो नदी में पेट्रोल डालने का क्या मतलब। दादाजी ने समझाया संसार मे प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाया जा सकता। प्रकृति से सहायता ली जा सकती है। प्रतिष्ठित पत्रकार एवं श्री मुनीन्द्र त्रिवेदी आज भी ऐसे सैंकड़ों किस्से सुनते हैं।
विचित्र घटनाएँ :- चांदामेटा के श्री गांगुलीजी के घर में विचित्र घटनाएँ घटित हो रही थी। आज के इस वैज्ञानिक युग में विश्वास करना मुश्किल होता है परंतु प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं। उनके घर में छत से गंदगी,(मैला) गिरता था। खाने-पीने की चीजों तक मे गंदगी फैलने लगी। आसपास के लोग भी डरने लगे। उनके घर के बच्ची दादाजी की पुत्री के साथ खेलने आती थी। दादाजी ने बच्ची के कुछ खाने के लिए पूछा। बच्ची ने मना कर दिया कहा आपके घर में भी गंदगी फैल जाएगी। दादाजी ने आश्चर्य से पूछा क्यों? बच्ची ने सारा वृतांत बताया। दादाजी को क्रोध आ गया। लोग विद्याओं का कैसा दुरुपयोग करते हैं? जब दादाजी श्री गांगुलीजी के यहाँ जाने लगे तो जो व्यक्ति इस करतूत का जिम्मेदार था उसने दादाजी को आगाह किया। कहा पंडितजी आप क्यों परेशानी मोल लेते हैं। दादाजी ने कहा मेरा काम ही दूसरों की परेशानी मोल लेना है, तुम अपनी फिक्र करो। दादाजी ने अंदर गए तो उनके ऊपर गंदगी गिर गई। दादाजी ने कहा एक गिलास पानी पिलाइए। उन लोगों को संकोच हुआ। उन्होने कहा दादाजी हम आपको पानी कैसे दे सकते हैं। उसमे तो गंदगी आ जाती है। दादाजी ने कहा चिंता मत करो, तुम पानी ले आओ। जैसे ही पानी लाया गया उसमें गंदगी आ गई। दादाजी ने तीन बार कहा मैं पानी पी रहा हूँ और दादाजी ने पानी पी लिया। उसके बाद उस परिवार की समस्या भी हल हो गई और दोषी व्यक्ति को सज़ा भी मिल गई। जब दादाजी से जिज्ञासु ने पूछा क्या आपने सचमुच गंदगी को ग्रहण किया। दादाजी ने हंस कर कहा कॉमन सेंस का उपयोग करो। हम सभी जानते हैं की मैला बनने की एक विशिष्ट प्रक्रिया होती है। वो इस तरह छत से नहीं टपकता। परंतु जो सैकड़ों लोग देख रहे हैं उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता। व्यक्ति वास्तव मे आँखों से नहीं बल्कि भावनाओं से देखता है। जब कोई जादूगर हमें जादू दिखलाता है तो हम मंत्रमुग्ध होकर देखते हैं। जानते हैं की यह सच नहीं है फिर भी हमारी आँखें उसे सच समझती हैं। जैसे हमारे पौराणिक ग्रन्थों मे अंगद के पैर का संदर्भ आता है। कोई उसे उठा क्यों नहीं पाया। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है की जो कुछ हमारी आँखें देखती हैं या हमारी इंद्रियाँ अनुभव करती है, हमारा मस्तिष्क उसी के अनुरूप कार्य करता है। जैसे आँखों ने पैर को देखा मस्तिष्क ने हाथों को उठाने का आदेश संप्रेषित किया। तब ही हम पैर उठा पाते हैं। यदि हमारा मस्तिष्क उठाने की बजाए दबाने का आदेश देगा तो हम उठाएंगे कैसे?
 भलाई भी सचेत होकर करो :- एक बहुत ही शिक्षाप्रद किस्सा याद आता है। दादाजी के एक बचपन के मित्र थे उनकी पत्नी को गले असाध्य रोग हो गया था। उनके गले में इतना भीषण फंगल इन्फ़ैकशन हो गया था की उनसे बोलना, खाना-पीना दूभर हो गया था। करीब ३ महीने से उस महिला ने बोला नहीं था, पानी भी चम्मच से बूंद-बूंदकर पी रहीं थी। परासिया मे सरकारी हॉस्पिटल मे डॉ. जी. पी. गुप्ताजी थे। वे दादाजी के परमप्रिय शिष्यों मे से एक थे। वेही उस महिला का इलाज कर रहे थे। चूंकि इन्फ़ैकशन भीषण था वोकल काड के नजदीक होने की वजह से ऑपरेशन भी करना मुश्किल था। दवाइयाँ असर नहीं कर रही थी। उस समय तक दादाजी की ख्याति एक चमत्कारिक व्यक्तित्व के रूप मे फैल चुकी थी। उस मित्र ने भी दादाजी को याद किया। दादाजी उस व्यक्ति के घर पहुंचे और उनकी पत्नी को कुछ खाने को दिया। थोड़ी देर बैठकर फिर वे अपने घर आ गए। कुछ देर बाद उस महिला को उल्टी हुई और उसमे खून, मांस के कुछ टुकड़े गिरे। उल्टी देख कर महिला घबरा गई और अपने पति को ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला के कहने लगी की तुम्हारे दोस्त ने मुझे ज़हर दिया है। उस व्यक्ति ने भी बड़ी मूर्खता कर दिया। उसने जाकर पुलिस मे रिपोर्ट लिखवा दिया। पुलिस इंस्पेक्टर भी दादाजी का शिष्यों मे से एक था। उसे भी बड़ा आश्चर्य हुआ फिर भी उसे अपनी ड्यूटी तो निभानी थी। उसने दादाजी से संपर्क किया। दादाजी, डॉक्टर साहब, इंस्पेक्टर सभी उस व्यक्ति के घर पहुंचे सभी को देखकर वह महिला ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। डॉक्टर साहब ने उसे डांटकर कहा शांत हो जाओ, फिर उस व्यक्ति को कहा तुम्हें खून की उल्टी नज़र आ रही है परंतु ये नहीं दिख रहा की जो महिला ३ महीने से बोल नहीं पा रही थी, वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही है। जो पानी नहीं पी रही थी वो अब पानी पी रही है। जो तुम उल्टी मे माँस के टुकड़े समझ रहे हो वो वास्तव मे वो बीमारी है जो मेडिकली ठीक नहीं हो सकती थी। अब तुम्हारी पत्नी पूरी तरह स्वस्थ है, पर तुमने बगैर सोचे समझे निर्णय लिया वो गलत था। तुम्हें मुझसे पूछना तो था। इस तरह डॉक्टर साहब, इंस्पेक्टर सभी उस व्यक्ति पर नाराज़ हुए, उसे भी अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने दादाजी से क्षमा याचना की दादाजी ने भी उसे क्षमा कर दिया।
बड़ा वो जिसमे आगे बढ़ने की संभावना हो :- दादाजी अक्सर पान खाने अपने प्रिय शिष्य श्री नन्हे सिंह(नानू) की दुकान जाया करते थे। श्री नानू उनके ढेरों किस्से आज भी सुनते रहते हैं। एक बार की बात है बालाघाट और बरघाट से कुछ लोग दादाजी से मिलने चांदामेटा पहुंचे, दादाजी श्री नानू की पान की दुकान मे बैठे थे। वे वहीं बैठ गए दादाजी ने सभी से कहा आओ सिंहवाहिनी मंदिर से घूम कर आते हैं। जब वे लोग लौट रहे थे तो बीच मे पासी समाज(सूअर पालन करने वाले) के कुछ लोगों का घर पड़ता है। दादाजी ने वहाँ पड़े सूअर के मैले की तरफ इशारा कर कहा इसे उठा लो। वे लोग संकोच करने लगे। फिर एक व्यक्ति उठाकर अपनी जेब मे रख लिया। थोड़ा आगे जाने पर भारत झिरिया(कुआं) पड़ती है। उस व्यक्ति ने दादाजी से नज़रें बचाकर वह मैला वहीं फैक दिया। जब वे सब लोग दादाजी के निवास स्थान पहुंचे, दादाजी ने उस व्यक्ति से कहा हाँ भाई निकालो जो मैंने तुम्हें रखने के लिए दिया था। वह व्यक्ति झेंप गया और डर के मारे उसने सारी बात बता दी। दादाजी ने थोड़े नाराज़ स्वर मे कहा अगर तुम्हें इतनी ही शर्म आ रही थी तो उठाया ही क्यों। अब अपनी ज़ेब मे हाथ डालकर देख, जब उस व्यक्ति ने अपनी ज़ेब मे हाथ डाला और कुछ कण जो रह गए थे उन्हे निकाला तो दंग रह गया! उसके हाथ मे सोने के कण थे। एक जिज्ञासु ने दादाजी से पूछा आप अक्सर लोगों को तुच्छ या ऐसी वस्तुएँ लाने को कहते हैं जो सामान्य आदमी के लिए अच्छी निगाह से नहीं देखि जाती। दादाजी साझाते हैं चाहे तुच्छ वस्तु हो या तुच्छ व्यक्ति, उसमे ही परिवर्तन की संभावना रहती है। लोहे और सोने मे सामान्य लोग सोने को ही बेहतर समझते हैं परंतु महत्वपूर्ण तो लोहा ही है क्योंकि जिस दिन लोहे को पारस मिल जाएगा वह सोना बन जाएगा लेकिन सोना तो सोना ही बना रहेगा। अर्थात जिसके अंदर संभावना है वही बड़ा है।
भूत दर्शन :-  श्री नानूजी एक और विलक्षण घटना बताते हैं। चांदामेटा मे एक प्रसिद्ध पहलवान श्री गिरिजा सिंह थे जिन्होने रुस्तमे हिन्द दादा सिंह से मुकाबला किया था। उनकी अंतिम यात्रा मे दादाजी और नानू दोनों गए। दादाजी ने पूछा नानू, गिरजा सिंह (आत्मा) को देखेगा। नानूजी ने थोड़ा डरते हुए हांमी भर दी। जब सभी लोग चले गए तो दादाजी ने श्री नानूजी को आत्मा के दर्शन कराए। ऐसी ही घटना दादाजी के शिष्य श्री अभय वैद्य भी बताते हैं। अभय वैद्य अक्सर नागपुर से चांदामेटा दादाजी से मिलने जाते थे। एक बार जब वे रात को दादाजी से मिलने चांदामेटा आ रहे थे तो निकालने से पहले उन्होने दादाजी से फोन पर बात की और प्रार्थना की भूत कैसे होते है या उनके दर्शन हो सकते हैं क्या? पहले दादाजी ने उन्हे समझाया परंतु जब अभय नहीं माने तो दादाजी ने कहा ठीक है, रास्ते मे तुम्हें दर्शन हो जाएंगे। अभय वैद्य अपनी कार लेकर नागपुर से निकले जैसे ही कार खुटामा के पास पहुंची एक व्यक्ति जो कंबल ओढ़े हुए था ने कार रोकी कहा भैया थोड़ा आगे तक छोड़ दोगे। अभयजी ने उस व्यक्ति को आगे छोड़ दिया। जैसे ही उन्होने उस व्यक्ति को छोड़ा अभयजी को ध्यान आया की जब वो आदमी कार के अंदर आया और बाहर गया तो कार का दरवाजा तो खुला ही नहीं! अब उनकी समझ मे आया की वो इतनी देर भूत के साथ थे। उसके बाद उन्होने कार का एक्सिलेटर जो दबाया सीधे चांदामेटा जाकर ही कार रुकी। दादाजी ने पूछा क्यों हो गए भूत के दर्शन। एक जिज्ञासु ने पूछा क्या सचमुच भूत होते हैं? दादाजी ने कहा अगर भगवान होते हैं तो भूत भी होते हैं। हम साधारण भाषा मे भी बीते हुए समय को भूतकाल कहते हैं। भूत अर्थात जो बीत गया, किसी को कभी भविष्य का भूत तो लगता नहीं। जो हो चुका है हमेशा उसी का भूत लगता है। भूतप्रेत के विषय मे एक तथ्य और है की वे सूर्यप्रकाश मे नहीं आते अर्थात वे डर या आशंकाएँ जो हो चुकी हैं, हमें तब तक परेशान करती हैं जब तक हम उन्हे सूर्यप्रकाश(आत्मप्रकाश) मे नहीं देखते।
सच्ची मेहनत बेकार नहीं जाती :- दादाजी ने ३० वर्षों तक इकलहरा मे नौकरी किए थे। वहाँ के लोग उन्हे बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक की एक बार उनका तबादला चांदामेटा हो गया परंतु दादाजी ने वहाँ भी जाने से मना कर दिया। वहाँ की कई रोचक घटनाएँ लोग आज भी बताते हैं। एक व्यक्ति जो आज एक प्रतिष्ठित इंजीनियर हैं। अपनी आप बीती बताते हैं। वह बड़ा ही मेधावी छात्र था उसने अपनी मेट्रिक की परीक्षा की अच्छी तैयारी किया था। परंतु दुर्भाग्य से एक पेपर मे उसकी तबीयत बहुत ख़राब हो गई। उसका पेपर बुरी तरह से बिगड़ गया था। वह बहुत ज़्यादा निराश हो गया। वह परीक्षा देकर जब भारी मन से लौट रहा था उसने देखा दादाजी एक पान की दुकान मे बैठे थे। वह उनके पास जाकर रोने लगा। दादाजी जब उसकी पूर्ण व्यथा से अवगत हुए तो उन्होने उस बच्चे के सर पर हाथ रख कर कहा तू चिंता मत कर तुझे अच्छे अंक मिलेंगे, उसे ढांडस बँधाया। जब परीक्षा का रिज़ल्ट आया तो वह लड़का भी हैरान रह गया। उसे उस विषय मे भी अन्य विषयों की तरह बेहतरीन अंक मिले। उसने ख़ुशी-ख़ुशी दादाजी के पास जाकर शुक्रिया अदा किया। असल मे हुआ यूं था की उस ज़माने में परीक्षा की उत्तरपुस्तिकाएँ ट्रेन द्वारा जाया करती थी। उस विषय का बंडल गुम गया, मिला भी तो ८ महीने बाद। इस बीच बोर्ड ने निर्णय लिया की अगर बात खुलती है तो काफी बदनामी होगी तो क्यों ना सभी बच्चों को पास कर दिया जाय और बच्चों के अन्य विषयों के नंबर से उनकी योग्यता का अंदाज़ा लग जायगा इसलिए उसी के आधार पर उन्हे अंक दे दिये जाएँ। इस तरह दादाजी के आशीर्वाद से वह सफल हुआ।
कौन सी जादू की छड़ी घुमा दी ? इकलहरा के ही दादाजी के अन्य सहयोगी श्री नारायण सिंह सिकरवार अपना वाकया बताते हैं। ऑफिस मे एक नए मैनेजर साब आए उनका किसी कारणवश श्री नारायण सिंहजी से विवाद हो गया। मैनेजर साहब ने इस क़दर परेशान किया की एक बारगी तो इन्होने नौकरी त्यागने तक का निर्णय ले लिया। दादाजी ने उनके परेशान चेहरे को देखकर पूछा तो सिंहजी ने अपनी व्यथा कही दादाजी ने कहा चलो आओ देखते हैं। दादाजी अपने साथ श्री नारायण सिंहजी को मैनेजर साहब के कैबिन में ले गए। अचानक मैनेजर साहब को ना जाने क्या हुआ उसका व्यवहार पूरी तरह बादल गया। कुछ दिनो बाद उसका तबादला भी हो गया उसने जाते समय श्री  नारायण सिंहजी से अपने व्यवहार के लिए क्षमा भी मांगी। श्री नारायण सिंहजी कहते हैं, ना जाने दादाजी ने कौनसी जादू की छड़ी घुमा दि की सब कुछ एक पल मे ही बादल गया।
परिणाम के पूर्व जीत की घोषणा :-  छिंदवाड़ा मे एक लोकप्रिय सांसद का चुनाव था। बस स्टैंड के पास उनके एक शुभचिंतक का प्रतिष्ठान है। उस समय सांसदजी की पार्टी के खिलाफ देश मे लहर चल रही थी। वहाँ बैठे सभी लोग अत्यधिक चिंतित थे। जब दादाजी वहाँ पहुंचे तो सभी लोग सांसदजी के जीताने के लिए प्रार्थना करने लगे। दादाजी उस दिन अपने अलग मूड मे थे। उन्होने वहाँ बैठे एक व्यक्ति से 100 रुपए का एक नोट मांगा और उस पर कुछ लिखा (79,6**)। और कहा- चिंता ना करो आपके सांसद इतने वोट से जीत रहे हैं। उस समय मतपत्रों से गिनती होती थी। सुबह से शाम हो जाती थी। शाम को जब वोटों गिनती पूरी हुई तो घोर आश्चर्य! जो संख्या दादाजी ने नोट पर लिखी थी उतने ही वोट से सांसदजी की जीत हुई। वह 100 रुपए का नोट आज भी रखा हुआ है।दादाजी के ममेरे भाई श्री नारायण प्रसाद शर्माजी जब चांदामेटा क्रेडिट कोपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए तो दादाजी ने ३ दिन पूर्व ही घोषणा कर दी की श्री शर्माजी ही सर्वाधिक मतों से  आते विजयी होंगे और वैसे ही हुआ।  नरेश ताम्रकार का चुनाव बहुत दिनो तक चर्चा का विषय बना रहा । जब भी चुनावों का समय आता प्रत्याशी दादाजी के पास आशीर्वाद के लिए पहुँचने लगते क्योंकि यह बात प्रसिद्ध थी की दादाजी जिसे पहले आशीर्वाद देते वही विजयी होता ।    
दोपहर मैं क्या करते थे ?  दादाजी के ऑफिस में दोपहर मे यदि आप फोन लगाते थे तो आप कितनी ही मिन्नत करो तो भी चपरासी उनके कैबिन मे नहीं जाता था। जब उससे पूछा जाता भाई तुम क्यों नहीं जाते तो वो बताता भैया मैने एक बार उनके कैबिन मे झाँकने की धृष्टता की थी जो कुछ देखा उसके बाद हिम्मत नहीं हुई।
समय पर बुद्धिकौशल का उपयोग :-  एक विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक हस्ती का आगमन हुआ। दादाजी के एक परम शिष्य ने उनसे मिलने की इच्छा प्रगट की। दादाजी ने पहले समझाया परंतु जब शिष्य ने ज़िद किया तो दादाजी ने कहा ठीक है चलो। जब वे लोग पहुंचे तो उन्होने देखा की वहाँ सैंकड़ों पहले से इंतज़ार कर रहे हैं। वहाँ के अधिकारी से पूछा तो उसने ३ दिन बाद का ५ मिनिट का समय दिया। दादाजी ने कहा भाई हम इतना इंतज़ार तो नहीं कर सकते एक पर्ची ले जाकर उनको दे दो यदि वो चाहेंगे तो हम उनसे मिल लेंगे। उन स्वामीजी के पास जब पर्ची ले जाई गई तो वे स्वयं बाहर आए दादाजी को ध्यान से देखा फिर दादाजी का हाथ पकड़कर अंदर ले गए और दो ढाई घंटे तक वे लोग वार्तालाप करते रहे। वे स्वामीजी जगत प्रसिद्ध थे, मूलरूप से मध्य प्रदेश के ही थे। उनके अनुयाई संसार भर मे फैले हुए हैं, अध्यात्म के शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति थे परंतु विवादों से काफी परेशान रहे। खैर, जितनी भी देर ये दो महान विभूति साथ रहे, बातचीत की उससे ज्ञान का अमृत ही बाहर निकला। जब दादाजी ने विदा ले ली तो शिष्य ने कहा क्या आप उन्हे पहले से जानते थे? आपने उस पर्ची मे क्या लिखा था। दादाजी ने कहा नहीं बेटा मैं इन्हे नहीं जनता पर ये जनता हूँ की वो जानकार है और वे मुझे देखकर पहचान लेंगे की मैं भी आध्यात्मिक व्यक्ति हूँ। परंतु वो मुझे देखेंगे कैसे। इसीलिए मैंने पर्ची मे कुछ ऐसा लिखा वो पढ़कर बाहर आएँ। शिष्य की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने फिर पूछा आपने उस पर्ची ऐसा क्या लिखा था। दादाजी ने मुसकुराते हुए कहा मैंने उस पर्ची मे लिखा था कीतुम्हारे बाप आए हैं। मैं जनता था ये पढ़कर वे अवश्य बाहर आएंगे ये देखने के लिए की किसने इतनी हिम्मत की। बस मै भी यही चाहता था।
शिष्य भी सामर्थ्यवान :- दादाजी से मिलने भारतवर्ष के उच्च स्तर की राजनैतिक हस्तियाँ मिलने आती थीं। परंतु दादाजी उन्हे कभी भी अपने निवास स्थान आने नहीं देते थे। वे कहते अध्यात्म और राजनीति का संयोग सर्वदा ख़राब परिणाम ही देता है और मै ये भी नहीं चाहता की दुनिया मुझे इस रूप मे जाने। मेरा नाम अखबार या TV मे आए। इसीलिए वे उच्चराजनीतिज्ञों से अपने शिष्यों के स्थान पर ही मिलते थे, उनमे से कई प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। नब्बे के दशक मे एक तांत्रिक महोदय का सत्ता के गलियारों मे बोलबाला था। एक बार दादाजी अपने शिष्यों से मिलने दिल्ली पहुंचे। जब उन तांत्रिक महोदय को दादाजी के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होने दादाजी से मिलने की इच्छा प्रगट की। दादाजी ने कहा भाई आप हमारे पास मत आइये हम आपके पास आ जाते हैं क्योंकि अगर आप आ गए तो दूसरे दिन अखबार और टीवी वाले मेरे पीछे पद जाएंगे। दादाजी जब उनके भव्य आश्रम पहुंचे तो देखा की उनके विशेष कक्ष मे एक बड़ा सिंहासन है जिसमे तांत्रिक महोदय बैठे हैं आगे कुर्सियाँ तो हैं परंतु लोग(जिनमे बड़े-बड़े मंत्रीगण भी शामिल थे) नीचे ही बैठते थे। दादाजी को देखकर तंत्रिकजी ने कुर्सियों की तरफ इशारा करते हुए कहा आइये महाराज विराजिए। दादाजी थोड़ा नाराज़ हो गए फिर कहा तुम किस्मत की खा रहे हो, जहां तक आध्यात्मिक सामर्थ्य की बात है ये मेरा शिष्य ही तुमसे आगे है। तांत्रिक महोदय समझ गए अवधूतों का क्रोध भयंकर होता है वे तुरंत अपने सिंहासन से उतरे और दादाजी को अपने सिंहासन पर बिठाया।
पैसे का मोल :- नब्बे के दशक मे हर्षद मेहता का नाम सुर्खियों मे रहा था। उनका मामला राजनैतिक तूल पकड़ते जा रहा था। उनकी जमानत नहीं हो पा रही थी। कारवाहलों जज थे जो बड़े सख्त माने जाते थे। मेहताजी के सचिव और शुभचिंतक नागपुर दादाजी से मिलने पहुंचे। उस कल मे अखबारों मे बड़ी चर्चा थी की एक सुटकेस मे १ करोड़ आता है की नहीं। वे बेचारे अपनी आकांक्षा लेकर दादाजी के पास पहुंचे दादाजी से विनती की और सुटकेस आगे बढ़ा दिया दादाजी क्रोधित हो गए सुटकेस को ठोकर मरते हुए कहा अगर मुझे पैसा ही कमाना होता तों मेरे पास मेरे गुरु की कृपा है जिससे मे तुझसे भी ज़्यादा पैसा कमा लेता। जा चिंता मत कर अमुक तारीख को जमानत हो जाएगी। आश्चर्य नहीं की वैसा ही हुआ।
पदार्थ एक रूप तीन:-  ऐसी ही एक विलक्षण घटना घाटी। परसिया के धनी व्यवसायी के पुत्र की अत्याधिक बीमार हालत थी। उसके पेट मे बहुत दर्द था। चूंकि धन की कमी ना थी इसलिए इलाज मे कोई कसर बाकी न थी। दादाजी उनके प्रतिष्ठान मे बैठे हुए थे। किसी ने समय को भाँपते हुए कहा दादाजी इस समय अपने औलिया मूड मे हैं। जाओ उनसे प्रार्थना करो। तुम्हारा काम निश्चित ही पूर्ण होगा। उस लड़के ने वैसा ही किया। दादाजी ने कहा क्या कहीं से बंदर का मैला मिल सकता है। वहीं बीमार का मौसेरा भाई खड़ा था उसने कहा मै लेकर आता हूँ। वो गया और एक कागज़ मे मैला लेकर आ गया। दादाजी को तंबाकू खाने का शौक था। जैसे तंबाकू को मलते हैं दादाजी वैसे ही तंबाकू को हाथ मलने लगे। फिर उन्होने उस लड़के को उसे खाने को कहा। उस लड़के ने जैसे ही उसे खाया उसका पेटदर्द स्वतः समाप्त हो गया। वहीं पर डॉ. दिनेश शिरपुरकर खड़े थे। उन्होने इस दृश्य को देखकर नाक-मुंह सिकोड़ा । दादाजी से ये बात छुप ना सकी उन्होने डॉ. की तरफ देखकर कहा क्यों रे डॉक्टर तुझे बुरा लग रहा है। डॉक्टर ने कहा सच कहूँ दादाजी तो मुझे बुरा लग रहा है क्योंकि मे डॉक्टर हूँ और जानता हूँ की मैला भक्षण की चीज़ नहीं है। दादाजी ने कहा तू सच कह रहा है डॉक्टर, मैला किसी को नहीं खाना चाहिए। ले अब तू खा। डॉक्टर साहब सकपका गए। उन्होने सोचा ये क्या बला मोल ले ली। दादाजी ने आगे कहा भाई अगर तुझे ये मैला लगे तो तू मुझे चाहे जो सजा देना चाहे दे देना। ये मेरा जूता है और मेरा सिर तू चाहे तो मुझे ये भी मर सकता है। इतनी बड़ी बात सुनकर डॉक्टर साहब ने भी हिम्मत कर उसमे से थोड़ा मैला खा लिया। अब दादाजी ने पूछा- कैसा लग रहा है डॉक्टर ? डॉक्टर साहब ने कहा- दादाजी ये मुझे कलाकंद की तरह लग रहा है। दादाजी ने कहाअब मुझे विश्वास नहीं हो रहा है, थूक कर बता। जब डॉक्टर साहब ने थूका तो वह सफ़ेद थूक ऐसा लग रहा था मानो किसी ने कलाकंद खाकर ही थूका हो। अब वहाँ एक और व्यक्ति खड़े थे जो ये सब घटनाक्रम देख रहे थे। उन्होने सोचा किसी की बीमारी ठीक हो गई, किसी को मिठाई लग रही है, उन्होने बगैर किसी से पूछे थोड़ा सा तुकड़ा उठा कर खा लिया। एक हफ्ते तक उनकी उल्टी बंद नहीं हुई। तात्पर्य यह है की एक पदार्थ कितने रूप लेता है। आखिर वो है क्या ? मैला, दवाई, मिठाई, या जहर उसकी सच्चाई क्या है ? दादाजी इसका जवाब बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ मे देते। वे कहते- संसार का प्रत्येक कण उस परमपिता परमात्मा से बना है, ये तो तुम्हारा नज़रिया है की तुम उसे कैसे देखते हो। वे जीवन मे नज़रिया (सोच) को बहुत महत्व देते थे। श्री संतोष श्रीवास्तव एक बड़ी अच्छी बात ध्यान मे लाते हैं। उन्होने बताया की दादाजी कहते की जब तुम्हारे घर सत्यनारायन की कथा या अन्य कोई पूजा होती है तो जब तक पूजा प्रारम्भ नहीं होती तब तक तुम ईश्वर के ध्यान मे लगे रहते क्योंकि तुम्हारे मस्तिष्क में सिर्फ भगवान के पूजन का ध्यान रहता परंतु जैसे ही तुम पूजन मे बैठते तो तुम्हारा ध्यान उन चीजों मे जाता है जो निरर्थक हैं। दादाजी छोटी छोटी बातों से जीवन का मर्म समझा दिया करते थे। वे कहते मनुष्य समस्याओं का सामना करते समय बड़ा नज़रिया रखना चाहिए जैसे चींटी के लिए एक छोटा सा टीला पार करना मुश्किल होता है, परंतु हाथी के लिए नहीं। इसलिए हाथी सा दृष्टिकोण रखना चाहिए। व्यावहारिक जीवन के उदाहरणों का सहारा भी लिया करते थे। जैसे कभी पूछते तुम्हारे गाँव या शहर में रोज़ कितनी दुर्घटना होती हैं, और उसमे कितने अंधे होते। तुम पाओगे की अंधों के बहुत कम एक्सिडेंट होते, ऐसा क्यों ? क्योंकि उसके पास मार्गदर्शक के रूप में एक लकड़ी  है, वो निर्जीव, अज्ञानी, जिसके पास ना प्राण है ना वाणी ना चेतना फिर भी वो उस अंधे को उसके लक्ष्य तक पहुंचा देती है। उसका कारण है अंधे का उस लकड़ी पर पूरा विश्वास परंतु ऐसा विश्वास आँख वालों के पास नहीं होता वे तो स्वयं पर अभिमान करते हैं इसीलिए उनके एक्सिडेंट ज़्यादा होते हैं। जीवन मे जब निर्जीव गुरु ही लक्ष्य तक पहुंचा देता है तो ज्ञानी गुरु की बात ही क्या है। वे कहते तुम्हारे पास वाणी है तो उसका सदुपयोग करो। कोई व्यक्ति डूब रहा हो उसे इतना ही कह दो चिंता मत कर तू बच जाएगा मैं आ रहा हूँ। तो यकीन मानिए वो अपने अंदर शक्ति से अपने जीवनकाल को बढ़ा कर जीने के उपाय खोज ही लेगा। 20 ऑक्टूबर 2005 को वे इस नश्वर शरीर को शाश्वत प्रकृति में परिवर्तित कर विद्यमान हैं। इसका प्रमाण है आज भी आप उनकी समाधि मे प्रणाम करने के लिए शीश झुकाएँ आपको अपने सिर पर उनका हाथ का स्पर्श महसूस होगा। यह प्रयास तो सागर मे बूंद से भी कम है उनके चाहने वाले तो हजारों किस्से,दृष्टांत, आपबीती सुनते हैं। जो भी अपने अनुभव हमारे साथ बांटना चाहता है। उनका स्वागत है। वे हमारे इस प्रयास मे सहभागी होंगे तो वह कार्य लोक कल्याण का काम होगा ।